ऋषि अष्टावक्र जिन्हे उनका नाम उनके शारीरिक विकारों के कारण मिला, हिंदू पौराणिक कथाओं के एक महान ज्ञानी संत थे। उनकी अद्वितीयता, उनके शारीरिक विकार और अद्वितीय ज्ञान के कारण थी। अष्टावक्र का नाम ही संकेत करता है कि उनके शरीर में आठ स्थानों पर विकृति थी, यानि वे आठ अंगों से टेढे थे। लेकिन उनकी मानसिक और आध्यात्मिक क्षमता आम लोगों से अत्यधिक विकसित थी। जिन्होंने अपने ज्ञान के बल पर ना सिर्फ अपने शारीरिक विकारों को दूर किया, बल्कि अपने पिता तक को पुनर्जीवित कर दिया था। तो आइए हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित इस महान संत के बारे में कुछ और रोचक बातें जानते हैं।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
ऋषि अष्टावक्र का जन्म एक ऋषि परिवार में हुआ था। उनके पिता ऋषि कहोड एक महान विद्वान थे और उनकी माता सुजाता भी ऋषि उद्दालक की पुत्री होने के कारण, धार्मिक और ज्ञान की धारा से प्रभावित थीं। कहा जाता है कि जब अष्टावक्र अपनी माता के गर्भ में थे, तब उनके पिता वेद पाठ कर रहे थे। गर्भस्थ अष्टावक्र ने अपने पिता को वेद पाठ में एक गलती करते सुना और उन्हें सही करने की कोशिश की। इस अपमान से आहत होकर उनके पिता ने उन्हें श्राप दे दिया कि उनका शरीर जन्म के समय विकृत हो जाएगा। इस कारण से अष्टावक्र का शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा हो गया और उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।
अष्टावक्र के जन्म के समय उनके पिता ऋषि कहोड, राजा जनक के दरबार में बंदी से शास्त्रार्थ में हार गए। शास्त्रार्थ में मिली हार से नियमानुसार उन्हे जल समाधि लेनी पड़ी और अष्टावक्र के जन्म से पहले ही उनके पिता ऋषि कहोड चल बसे।
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राजा जनक का दरबार और अष्टावक्र का ज्ञान
अष्टावक्र बचपन में अपने नाना ऋषि उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्वेतकेतु को अपना भाई समझते थे। लेकिन एक दिन अपने वास्तविक पिता की सच्चाई जानने के बाद,अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिए राजा जनक के दरबार में पहुंचे। राजा जनक अपने समय के महान शासकों में से एक थे और उनकी सभा में विभिन्न विद्वानों का स्थान था। दरबार में उपस्थित विद्वान अष्टावक्र के विकृत शरीर को देखकर हंसे, परंतु अष्टावक्र ने उन्हें तर्क और ज्ञान से निरुत्तर कर दिया।
राजसभा में अष्टावक्र ने सबसे पहले अपने उत्तरों से राजा जनक को प्रसन्न किया,जिसके बाद राजा ने उन्हे बंदी से शास्त्रार्थ की अनुमति दे दी। इसके बाद अष्टावक्र और बंदी के बीच शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। जिसमें दोनों एक दूसरे के प्रश्नों का उत्तर एक से बढ़कर एक तरीके से दे रहे थे। लेकिन काफी लंबे चले इस शास्त्रार्थ में एक ऐसा भी समय आया जब बंदी निरुत्तर हो गए और अष्टावक्र ने हारे हुए बंदी के लिए भी अपने पिता की भांति जल समाधि की मांग की। तभी बंदी ने अष्टावक्र से माफी मांगते हुए अपने पिता वरुण देव के माध्यम से ऋषि कहोड को जीवित कर दिया।
जिसके बाद अपने पुत्र के इस ज्ञान से प्रभावित हो,ऋषि कहोड ने अपने आशीर्वाद से अष्टावक्र की सभी शारीरिक विकृतियों को दूर कर दिया।
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अष्टावक्र गीता:- आत्मज्ञान का संदेश
अष्टावक्र गीता हिंदू धर्म के सबसे प्रमुख ग्रंथों में से एक है, जो अष्टावक्र और राजा जनक के बीच हुए संवाद पर आधारित है। इसमें आत्मा, माया, और ब्रह्मांड की वास्तविकता के गूढ़ रहस्यों का वर्णन किया गया है। अष्टावक्र ने राजा जनक को आत्मा की स्वतंत्रता और मोक्ष का महत्व समझाया। उनका मानना था कि संसार की सभी भौतिक वस्तुएं माया हैं और आत्मा ही एकमात्र सत्य है।
अष्टावक्र गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान के त्रिवेणी की बात की गई है। इस ग्रंथ में आत्मज्ञानी व्यक्ति की दृष्टि को महत्वपूर्ण बताया गया है। इसमें कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने भीतर के आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वही सच्चे अर्थों में मुक्त होता है। यह ग्रंथ विशेष रूप से उन लोगों के लिए है जो आत्मज्ञान की खोज में होते हैं।
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आध्यात्मिक शिक्षा
अष्टावक्र का जीवन और उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने आत्मज्ञान की महत्वपूर्ण धारणाएँ दीं। जिनमें बताया गया है कि मानव शरीर भले ही अपूर्ण हो, लेकिन आत्मा दिव्य और शुद्ध होती है। उनके अनुसार, संसार के सभी कष्ट और दुख माया के प्रभाव में होते हैं और जब व्यक्ति आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है, तो वह इन कष्टों से मुक्त हो जाता है।अष्टावक्र की शिक्षा यह भी थी कि मनुष्य को अपने शरीर और मन से ऊपर उठकर आत्मा की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह आत्मज्ञान ही मनुष्य को परम आनंद की ओर ले जाता है। उनकी शिक्षा ने केवल राजा जनक को ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी प्रभावित किया।
ऋषि अष्टावक्र की जीवन कथा और उनकी गीता ने हिंदू धर्म में आत्मज्ञान और मोक्ष की दिशा में नई दिशाएँ खोलीं। उनका जीवन यह सिखाता है कि बाहरी शारीरिक विकृतियाँ महत्वपूर्ण नहीं होतीं,असली महत्वपूर्ण वस्तु आत्मा और उसका ज्ञान है। ऋषि अष्टावक्र की शिक्षाएँ आज भी भारतीय दर्शन और योग परंपरा में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं।