श्रील प्रभुपाद (Srila Prabhupada) जिन्हें अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है, 20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली वैष्णव धर्मप्रचारक थे। उनका जन्म 1 सितंबर 1896 को कलकत्ता यानि आज के कोलकाता में हुआ था। श्रील प्रभुपाद गौडीय वैष्णव संप्रदाय से संबंधित थे और उन्होंने सनातन धर्म, विशेषकर भगवद् गीता और श्रीमद्भागवत पुराण के संदेश को विश्वभर में फैलाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। श्रील प्रभुपाद ने 1966 में “अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ” यानि ISKCON की स्थापना की थी, जिसका मुख्य उद्देश्य पूरी दुनिया में भगवान कृष्ण की भक्ति का प्रचार करना था। उनका मानना था कि, कृष्णभावना से ही मानव जीवन का कल्याण हो सकता है और आध्यात्मिक जागृति की प्राप्ति संभव है।
श्रील प्रभुपाद का प्रभाव सिर्फ धार्मिक प्रचार तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने धार्मिक और दार्शनिक शिक्षा को भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू करने का प्रयास किया। वे अपने अनुयायियों को सिखाते थे कि भक्ति जीवन के हर पहलू में समाहित होनी चाहिए चाहे वह व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन हो, सामाजिक दायित्व हो या आध्यात्मिक लक्ष्य। उनके नेतृत्व में ISKCON ने पूरे विश्व में हजारों मंदिरों, आश्रमों, और धार्मिक केंद्रों की स्थापना की।
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श्रील प्रभुपाद का जीवन – Life of Srila Prabhupada
श्रील प्रभुपाद का प्रारंभिक जीवन साधारण और धार्मिक माहौल में व्यतीत हुआ। उनके माता-पिता, गौर मोहन डे और रजनी डे गहरे धार्मिक विश्वास वाले थे। जिन्होंने बचपन से ही प्रभुपाद को कृष्ण-भक्ति से जोड़ दिया। उनकी शिक्षा स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता में हुई, जहाँ से उन्होंने अपनी स्नातक की डिग्री प्राप्त की। वे बचपन से ही धार्मिक पुस्तकों में रुचि रखते थे और वैष्णव संतों की शिक्षा को गहराई से आत्मसात कर चुके थे। हालांकि प्रभुपाद का जीवन एक सामान्य गृहस्थ जीवन के रूप में शुरू हुआ,लेकिन बाद में उन्होंने वैराग्य की राह अपनाई।
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1922 में श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से मिलने के बाद, श्रील प्रभुपाद की वैष्णव धर्म के प्रति निष्ठा और दृढ़ हो गई। जिसके बाद उनके गुरु ने उन्हें पश्चिमी दुनिया में कृष्णभावना का प्रचार करने की प्रेरणा दी। प्रभुपाद ने अपने गुरु के निर्देश का पालन करने के लिए लंबे समय तक तैयारी की और अंततः 1959 में गृहस्थ जीवन छोड़कर संन्यास धारण कर लिया।
संन्यास के बाद प्रभुपाद ने भागवत पुराण और भगवद्गीता का अंग्रेजी में अनुवाद और व्याख्या करना शुरू किया। 1965 में 69 वर्ष की आयु में श्रील प्रभुपाद भारत से अकेले ही न्यूयॉर्क गए और वहाँ ISKCON की नींव रखी। शुरुआत में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उनकी दृढ़ निष्ठा और भगवान कृष्ण के प्रति अपार भक्ति ने उन्हें सफलता दिलाई। हालांकि जिस समय प्रभुपाद जी अमेरिका पहुंचे थे, उस समय यूएस और वियतनाम का युद्ध चल रहा था और वहां ज्यादा हिप्पी कल्चर आ गए थे। जो नशे में धुत सड़कों पर पड़े रहते थे और प्रभुपाद जी ने इनसे ही कृष्ण भक्ति का प्रचार शुरू किया। वह इन लोगों के बीच कीर्तन करते थे। जिन्होंने हिप्पियों मेडिटेशन की तरफ आकर्षित किया और धीरे-धीरे हिप्पियों को भगवद गीता के श्लोकों और प्रभुपाद जी की बातें सुनने में मजा आने लगा। जिसके बाद धीरे-धीरे उनके भक्तों की संख्या बढ़ती गई और ISKCON एक वैश्विक धार्मिक आंदोलन बन गया।
श्रील प्रभुपाद का परिवार – Prabhupada Family
श्रील प्रभुपाद जी का जन्म एक वैष्णव परिवार में हुआ था।जिनका वास्तविक नाम अभय चरण डे था। साल 1901 में जब वह सिर्फ 5 साल के थे, तब वह जगन्नाथ रथ यात्रा से काफी प्रेरित हुए और उन्होंने अपने घर में भी रथ यात्रा निकाली। वह अपने पिता के साथ श्री श्री राधा गोविंद मंदिर जाया करते थे, जहां से वह कृष्ण भक्ति में लग गए और उन्होंने श्री राधा कृष्ण की सेवा करना शुरू कर दिया। प्रभुपाद का विवाह राधारानी देवी से हुआ था, जिनसे उनके तीन बच्चे थे। हालांकि, गृहस्थ जीवन के दौरान प्रभुपाद का ध्यान पूरी तरह कृष्ण-भक्ति और वैष्णव धर्म के प्रचार पर केंद्रित रहा। जिन्होंने अपने गुरु के आदेश से भगवद गीता को अंग्रेजी में ट्रांसलेट करना शुरू कर दिया।
एक दिन जब श्रील प्रभुपाद की पत्नी ने उनके ट्रांसलेट किए गए पन्नों को कबाड़ी को बेचा,तो उसी दिन नाराज श्रील प्रभुपाद ने अपना घर छोड़ सन्यास धारण कर लिया। जो साल 1950 में अपने घर को त्याग वृंदावन आए और अपने गुरु के आदेश से वृंदावन से न्यूयॉर्क चले गए। जिन्होंने 12 साल में पूरी दुनिया का 15 बार भ्रमण किया और कुछ ही सालों में 6 महाद्वीपों में 108 मंदिर बना दिए।
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श्रील प्रभुपाद की मृत्यु – Death of Prabhupada
14 नवंबर 1977 को श्रील प्रभुपाद ने वृंदावन में अपना शरीर त्याग दिया। उनके जीवन के अंतिम कुछ वर्ष उनके शारीरिक स्वास्थ्य के लिए चुनौतीपूर्ण थे, लेकिन उन्होंने अपने अनुयायियों को निरंतर प्रेरित किया और कृष्णभावना के मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित किया।
उनकी मृत्यु के समय ISKCON एक वैश्विक संगठन बन चुका था, जिसकी स्थापना उन्होंने साल 1966 में की थी। जिसके माध्यम से उन्होंने अपने हजारों अनुयायियों के साथ मिलकर सैकड़ों मंदिरों और आश्रमों का निर्माण करवाया। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद भी उनका प्रभाव और उनके द्वारा शुरू किया गया धार्मिक आंदोलन निरंतर बढ़ता रहा।
सनातन धर्म में योगदान – Contribution
श्रील प्रभुपाद जी का सनातन धर्म में योगदान असीमित है। श्रील प्रभुपाद ने केवल धार्मिक उपदेश ही नहीं दिए, बल्कि विश्वभर में सनातन धर्म विशेषकर वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके द्वारा स्थापित ISKCON ने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया और हजारों लोगों को कृष्णभक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। प्रभुपाद ने भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत पुराण के अंग्रेजी अनुवाद और उनकी व्याख्याओं के माध्यम से सनातन धर्म की गहरी शिक्षाओं को विश्वभर के लोगों तक पहुँचाया। उनका मानना था कि धर्म और अध्यात्मिकता किसी एक देश या संस्कृति तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उन्हें पूरे मानव जाति का कल्याण करना चाहिए।
उनके द्वारा प्रस्तुत कृष्णभावना का संदेश जीवन के हर क्षेत्र में उतारा जा सकता है,व्यक्तिगत शांति से लेकर समाजिक कल्याण तक। उन्होंने अपने जीवन के माध्यम से यह साबित किया कि धर्म सिर्फ पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं है बल्कि यह जीवन जीने की एक संपूर्ण पद्धति है,जो मानव को आत्म-साक्षात्कार और परम सत्य की प्राप्ति की दिशा में ले जाती है।श्रील प्रभुपाद ने न केवल धार्मिक शिक्षाओं को दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाया बल्कि उन्होंने अनेक स्कूल, कॉलेज, कृषि परियोजनाएँ, और शाकाहारी भोजन वितरण कार्यक्रम भी शुरू किए। उनके नेतृत्व में ISKCON ने वैश्विक स्तर पर सामाजिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए अद्वितीय योगदान दिया है।